ग्रामीण परिवेश और मुंशी प्रेमचंद

ग्रामीण परिवेश और मुंशी प्रेमचंद

गाँव के सजीव, जीवंत और सामयिक चित्रण करने में कथा और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कोई सानी नहीं है। उस समय के परिवेश में गाँव एक अभिन्‍न अंग था व्यक्ति और समाज के जीवन में। कभी-कभी लगता है कि घड़ी को मुंशी प्रेमचंद के समय में मोड़ दिया जाए, जब लोग गाँवों में रहते थे और एक दूसरे के प्रति स्नेह और सम्मान दिखाते थे। गाँव के शांत वातावरण, वहाँ के तौर तरीकों को ‘पूस की रात’ और “दो बैलों की कथा” में बखूबी चित्रित किया है। बैलों के माध्यम से उन्होंने गाँव परिवेश और उनके माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को इंगित किया है। उनकी कहानियों में गाँव केवल एक परिवेश नहीं है बल्कि एक जीवित पात्र है। ‘गोदान’ उनका एक चर्चित उपन्यास है जिसमें गाँव का सटीक चित्रण है उसमें जैसे कि गाँव के मिट्टी के घर जिनके छप्पर टूट रहे हों। गाँव की गरीबी का भी मार्मिक चित्रण मिलता है। ‘गोदान’ का होरी हमेशा गरीबी की मार झेलता रहता है और अपने ऋण से वह मुक्त ही नहीं हो पाता। उसके संघर्ष की कहानी तब भी उतनी ही यथार्थ थी जितनी अब। उसके कर्ज को जिस तरह से बढ़ते बताया, वो लगता है कि सब होरी की कहानी है। उनका ऋण, उनकी जमीन को गिरवी रखना और इसके बावजूद भगवान के न्याय में अठूट विश्वास– लगता है कहानी सम्राट अपनी कलम के जादू से सबकी बात रख रहे हैं। स्त्रियों को भी ग्रामीण परिवेश में चित्रित किया है उनके सही परिवेश में। उनको अपने जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं है, जो माता-पिता ठीक समझें, बस वही ठीक।

प्रेमचंद के तकरीबन 45 उपन्यास और 300 से ज्यादा कहानियाँ और अन्य रचनाओं में गाँव के लोगों के संघर्ष की कहानी है। गाँव के लोगों का जीवन-खेती करना, गायों की देखभाल, पशुधन की सुरक्षा, छोटे-छोटे तीज त्योहार, – ये सब जैसे कहानियों में बोल उठे हैं। कहीं भी बनावटी नहीं है। प्रेमचंद अपने जीवन मे रूसी क्रांति से प्रभावित रहे हैं। तभी उनकी कहानियों में किसानों के शोषण, जमींदार द्वारा प्रताड़ना और सरकारी तंत्र से उनको कोई सहायता ना मिलना– ये सब बखूबी दिखाया है। गाँव के लाग भोले और सीधे हैं और उनको अंधविश्वासों ने भी जकड़ रखा है-ये उन्होंने सच्ची सरल भाषा में कह दिया था। “बल की शिकायतें सभी सुनते हैं, निर्बल की फरियाद कोई नहीं सुनता”-प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियाँ तो गागर में सागर हैं। हिन्दी और उर्दू में लिखते हुए उन्होंने गाँवों को जीवंत बना दिया। ‘गोदान’ में होरी फिर शहर से लौटकर गाँव आता है। उनकी बहुत कहानियों में शहरों का भी चित्रीकरण है और वह शायद पूंजीवाद के दुष्परिणाम को दिखाने के लिए। उनकी सबसे बड़ी खासियत थी सरल भाषा का प्रयोग। एक उदाहरण लें “विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला’।

प्रेमचंद के इस कथन में कितनी गहराई, कितना सार है। गाँव का मतलब है सरलता और सादगी। लेकिन गरीबी और सामाजिक अन्याय भी इसी मिट्टी में पनपे हैं। और इसके जाल से कोई बचा नहीं । जिस समय प्रेमचंद ने साहित्य की सेवा शुरु की थी, उस समय देश में अंग्रेज शासक थे, किसान कर्ज में डूबा था, क्रांति की लहर देश में हल्की-हल्की चल रही थी। भारत गाँवों का देश तब भी था और अब भी है। लोग गाँव भले ही छोड़ देते हैं, लेकिन दिल से गाँव नहीं जा पाता। उसकी मिट्टी, उसकी खुशबू लोग साथ-साथ ले जाते हैं। कलम के सिपाही प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों के गाँव बिल्कुल जाने पहचाने लगते हैं और हमारे साथ ही रहते हैं।

आज भी उनके गाँव उतने ही सामयिक हैं जितने कि तब। गाँव शायद अब उतने सरल नहीं हैं। जात-पात और भी न जाने कितनी क्रीतियाँ आ गई है फिर से और गाँव को दूषित कर रही हैं। लेकिन नहीं बदला है तो उनका हृदय। प्रेमचंद के कलम में बड़ी शक्ति थी। उर्दू और हिन्दी में कहानी, कविताएँ, उपन्यास लिखते हुए वह हमेशा मिट्टी से जुड़े रहे। “आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी अपने घर की याद आती है’ शायद उन्होंने जमीन से जुड़ने की बात को ही लेकर कहा था।

डॉ अमिता प्रसाद

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