तेरे मेरे सपने

तेरे मेरे सपने

ज़मीन के उस छोटे से टुकड़े पर पूरा एक जहाँ फैला है…. बृज और गौरा की दुनिया जिसमें सपने रूप बदल तितली से उड़ा करते हैं।
पानी के इंजन की धक-धक और काले धुएँ में, बहते पानी में, धरती में दबते बीज में, अंकुरण में और नवांकुर के ऊपर आने में अनगिनत सपने।
जहाँ वो कच्चा, माटी लिपा घर है उसमें ही दुआ निकलती है बरसात की…. फटी रजाई में ठिठुरते हुए मन आस लगाता है सर्दी जम कर पड़े और कनक व सरसों लहलहाये।
जब धरती अकुलाती है सूरज के ताप से तब चिलचिलाती धूप में दोनों मेढ़ पर नीम की छांव में बैठकर सोचते हैं इस बार कटाई तक ऐसे ही दमकना रवि राजा…. बदरी की ओट में मत छिपना और बरसने नहीं देना बादल को।
हर मौसम आँख का विस्तृत फलक है जिसमें सपनों की पौध लहराती है।
यह अलग बात है कभी मौसम की नाराजगी कभी मंडी की बेरुखी और कभी कोई आपदा कीट-बीमारी या आग, बाढ़ बन काटते-कुतरने, जलाते या बहाते आ रहे हैं सपनों को मगर अन्नदाता की आस नहीं टूटती।
जी भर के सपने देखता है फसल के फूल-पत्ते की बढ़त के साथ फिर दो बूँद टपकाकर उस सपने की अर्थी पर, तसल्ली दे लेता है।
बृज को उदास देख गौरा या गौरा की नम आँख देख बृज कहता है, “साल हारे हैं, उमर नहीं। फिर तोड़ लेंगे हाड़ और उपजा लेंगे।”
इस बार गेहूँ हरा छम्म है और सरसों सोने सी दमक रही है। सोने से याद आया, गौना करवाकर चला था जब गौरा के साथ, सासू माँ ने कने (पास) बुलाके की थी “रकम पूरी पिनई दी है। या तो बाबली है तम नजर धरजो कंवर सा (दामाद जी) ।”
गांव के बाहर जब गाड़ी आई तब देखा था। माथा पे राखड़ी (बोर) , गर्दन में हँसली और हार, नाक में नथनी, कलाई में कड़ा-बाटला, बाजू में गुजरी, हाथ में हथफूल, मुंदरी, कम्मर में कांधनी, पांव में कड़ी-आंवला और बिछुआ…. लाद दी थी सोना-चांदी से। जो रकम इनंग से कम री थी ओके सासरे से पिना दिया था।
जब जब बिपदा आई, गौरा ने देर नीं की रकम उतार के देने में। का तो खाद-बीज कईं दवा में कभी नीं डटी।
तम म्हारो सबसे बड़ा जेवर। कईं करूँगी सोना-चांदी राख के….. तोला में दे रई हूँ पाव में लूँगी तमसे…..
बाबली ! बस देती री। हुँ कदी लौटा तो नीं सका।
कड़ा की जगे कांच की चूड़ी और कड़ी की जगे गिलट की पट्टी (पायल) आ गईं। बाकी सब लाला की तिजोरी में समई गया।
जो उतरा आंग से नेठ्यू(कभी नहीं) नी लौटा पन.. वाऽ री सिठाणी। सिकन (शिकन) न आने दी कदी (कभी) ….
माई का नुक्ता दादा की सराध…. मोड़ी मोड़ा की बीमारी पढ़ाई….. कछु नीं रुकने दिया।
जा साल तो सौगन (कसम) है मोये। कछु भी होये रकम लाके देनो है लाला से।
बतऊँआई नईं। मंडी से सूदा बजार। उधारी देके बस म्हारी गौरा को समान लेणों और लौट आनो। समझ लंगा जा साल भी नीं लगया कछु हाथ….
फसल की बहार देख गौरा भी फूली नहीं समा रही थी।
चारों कोना पे ओढ़नी की काली किनार बाँध आई थी। नजराये नईं जा साल फसल।
आकर बृज के करीब बैठी तो…. बनियान के छेद देख हँसी भी आई और आँख भी भर आई।
का से कंई हो ग्या राजू का दाई जी।
कसा गबरू जवान था जब घोड़ी पे आया था तोरण मारने।
न पेट भर खाया न तन भर पैना कदी। दिन-रात लगेयाई रेया पन कईं नी सर सब्ज हुआ (कुछ हाथ आया) ।
या साल तो फसल का आधा मुनाफा लूँगी।
टेरीकाट का पजामा, छींट का कुर्ता और रेशमी सुआपी (अंगोछा) लाऊँगी। बूट भी चमड़ा वालो और हाथ घड़ी।
मंझले जीजा की सारी ठसक निकल जायेगी देख के……
कीं रोटा मेल दूँ तमारे (खाना पर्स दूँ क्या) पोटली और मटकी उठाकर सामने रखी गौरा ने।
बृज ने कपड़े को खोलकर रोटी, प्याज़ और हरी मिर्च निकालीं और समतल जगह पर रखकर प्याज़ पर मुट्ठी से प्रहार किया जैसे वो प्याज़ नहीं महाजन लाला का सिर है…..
एक कौर में प्याज नमक रख गौरा को खिलाने लगा तो वो ऐसी लजाई जैसे गौने की रात लजाई थी……
बड़ी मनुहार से निवाला खिलाया बृज ने। गौरा ने भी झुकी निगाह से एक कौर खिलाया उसे …..
दोनों की ही आँखों में सपने महक रहे थे पास लगे मोगरे के फूल की तरह।

मुकेश दुबे
कथाकार एवं उपन्यासकार
मध्यप्रदेश

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