वे

वे

 

दो विपरीत  बहते छोरों को अचानक गठबंधन में बाँध दिया गया

ऐसे, जैसे कोई हादसा अचानक हो जाए

न प्यार था न परिचय

बस दो अजनबी…

न वो सूरज था न वो किरन

न वो दिया था न वो बाती।

न वो चाँद था और न वो चाँदनी

एकदम विपरीत थे वे दोनों…

 

एक शान्त तो दूसरी बेचैन

एक जमीनों पर पैर जमा कर रखता

तो दूसरी आसमानों में ऊँचाइयाँ नापती

तब भी चलते- चलते

एक दूसरे के रास्तों में आ जाते

यूँ ही भिड़ जाते…

 

पर साथ चलना तो तय था

धीरे-धीरे महसूस हुआ वे विरोधी नहीं

परस्पर पूरक थे एक दूजे के, तो फिर…

उसने जमीनें बाँटी थोड़ी

तो उसने भी अपने आकाश के

कुछ हिस्से उसके नाम कर दिए…

 

अब आख़िरी पड़ाव है

साँझ होने को है…

हैं तो आज भी वे बिल्कुल विपरीत

लेकिन लोग कहते हैं कि उनकी शक्लें अब

कुछ- कुछ मिलने लगी हैं…!

उषा किरण

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